रविवार, 8 जनवरी 2017

मोबाइल री कथा

*राजस्थानी भाषा में एक व्यंगात्मक*
                   हास्य कविता

कलयुग में भगवान एक, ''खिलौनों बणायो।
दुनियावाला ई को नाम मोबाइल रखवायो।

मोबाइल रखवायो,खिलोणो अजबअनोखो।
धरती क इन्साना न यो,लाग्यो घणो चोखो।।

इन्सानासुं भगवनबोल्या,बात राखज्यो याद।
सोचसमझ वापरो, वरना होज्यासो बर्बाद।।

होज्यासो बर्बाद,चस्को लागेलो अति भारी।
ई के लारे पागल हो जावेली दुनिया सारी।।

सदउपयोग करेजो कोई,काम घणोयो आसी।
दुर्पयोगजे होवण लाग्यो,टाबर बिगड़जासी।।

टाबर बिगड़ जासी,कोई की भी नहीं सुणेला।
'मोबाइल' में मगन रहसी,काम नहीं करेला।।

टाबरांकी छोड़ो,बडोड़ा की अक्कल जासी।
कामधंधा छोड़ बैठ्या मोबाइल मचकासी।

मोबाइलमचकासी और खेलसी दिनभरगेम।
व्हाट्सएप रे मैसेज मे ही,बीत जासी टेम।।

छोरियां और लुगायां लेसी इंटरनेट कनेक्शन।
हाथांमें मोबाइल रखणो बणजावेलो फ़ैसन।।

बण जावेलो फ़ैसन,ए तो फेसबुक चलासी।
रामायण और भगवतगीता पढणो भूलजासी

अपणेअपणे मोबाइल मे,रहसी सगळा मस्त।
धर्मकर्म और रिश्तानाता,सबहो जासी ध्वस्त।

हे ! प्रभु थारी आ लीला है घणी अपरम्पार
थें म्हानेबतावो, यो थांरो किस्यो है अवतार'।।

सोमवार, 2 जनवरी 2017

अै लिछमी दीप बुझाती जा!

अै लिछमी दीप बुझाती जा!


ओढ्यां जा चीर गरीबां रा
धनिकां रौ हियौ रिझाती जा
चूंदड़ी रौ अेक झपेटौ दै, अै लिछमी दीप बुझाती जा !
हळ बीज्यौ सींच्यौ लोई सूं तिल तिल करसौ छीज्यौ हौ
ऊंनै बळबळतै तावड़ियै, कळकळतौ ऊभौ सीझ्यौ हौ
कुण जांणै कितरा दुख झेल्या, मर खपनै कीनी रखवाळी
कांटां-भुट्टां में दिन काढ्या, फूलां ज्यूं लिछमी नै पाळी
पण बणठण चढगी गढ-कोटां, नखराळी छिण में छोड साथ
जद पूछ्यौ कारण जावण रौ, हंस मारी बैरण अेक लात
अधमरियां प्रांण मती तड़फा, सूळी पर सेज चढाती जा
चूंदड़ी रौ अेक झपेटौ दै,
अै लिछमी दीप बुझाती जा !

जे घड़ी विधाता रूपाळी, सिणगार दियौ है मजदूरां
रखड़ी बाजूबंद तीमणियौ, गळहार दियौ है मजदूरां
लोई में बोटी बांट-बांट, जिण मेंहदी हाथ लगाई ही
फूलां ज्यूं कंवळा टाबरिया, चरणां में भेंट चढाई ही
घर री बू-बेट्यां बिलखी, पण लिछमी तनै सजाई ही
इक थारी जोत जगावण नै, घर-घर री जोत बुझाई ही
पण अैन दिवाळी रै दिन बैरण, सांम्ही छाती पग धरती
ठुमकै सूं चढी हवेली में, मन मरजी रा मटका करती
जे लाज बेचणी तेवड़ली, तो पूरौ मोल चुकाती जा
चूंदड़ी रौ अेक झपेटौ दै,
अै लिछमी दीप बुझाती जा !

इतरा दिन ठगती रैई है, थूं भोळी बण छळ जाती ही
खाती ही रोटी मांटी री, पण गीत वीरै रा गाती ही
जे हमें जांण रौ नांम लियौ, तौ जीभ डांम दी जावैला
जे निजर उठी मैलां कानीं, तौ आंख फोड़ दी जावैला
जे हाथ उठायौ हाकै नै, नागोरी गहणौ जड़ दांला
जे पग धर दीनां सेठां घर, तौ पगां पांगळी कर दांला
महलां गढ़ कोटां बंगळां रा, वे सपना हमें भुलाती जा
चूंदड़ी रौ अेक झपेटौ दै,
अै लिछमी दीप बुझाती जा !